नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: वो प्रसाद दे जो भगवान के लिए रखता है!
बाबा जी महाराज के साथ हम कुछ चरणाश्रित प्रयाग में में घूम रहे थे। तभी बाबा जी सहसा एक महन्त के वेष वाले साधू की कुटी के पास रुक गये और उस साधू से कहने लगे “मुझे बड़ी भूख लगी है, कुछ दे खाने को ।” साधू बाबा ने उन्हें भण्डारे हेतु बनी सामग्री से कुछ देना चाहा । परन्तु तुरन्त ही बाबा जी बोल उठे – “नहीं, 'वो' ला जो तूने भगवान के लिये बनवाकर रख छोड़ा है।”
दरअसल साधू बाबा कुछ तरमाल बनवाते रहे भगवान हेतु भोग की आड़ में और फिर उसे स्वयं ही चुपचाप पा लेते । चेलों तथा अन्य लोगों के लिये केवल साधारण-सा भोजन अलग से बनता था भण्डारे में । परन्तु बाबा जी से क्या छिप सकता था ।
जब बाबा जी ने उसका रहस्य इस प्रकार खोल दिया तो साधू महाराज सकपका गये। फिर भी बात टालने के लिये बोल उठे । “वह भोग तो भगवान के लिये है ।" तब महाराज जी बोले, “जब भगवान के लिये है तो देता क्यों नहीं ?" हारकर (कि उसका रहस्य सर्वविदित न हो जाये ) साधू ने वह भोग निकालकर महाराज जी को पवा ही दिया ।
तब तो बाबा जी की उक्त लीला पर न तो मनन करने का ही अवसर मिला था और न इस ओर मनोवृत्ति ही हुई थी। अन्य लीलाओं की तरह मैं यही समझता रहा कि बाबा जी ने उस साधू का भेद खोल दिया है, और इस तरह बता दिया हमें कि उनसे कुछ छिपा नहीं है ।
किन्तु उस लीला पर मनन करने पर अब स्पष्ट हो गया है कि अपनी उक्ति ‘भगवान के लिये है तो देता क्यों नहीं' के द्वारा बाबा जी ने पूरी तरह खुलासा कर दिया अपने भगवद् रूप-स्वरूप का !! परन्तु केवल हमारी भेद-दृष्टि और बुद्धि ने हमें तब इस सत्य को पकड़ने से वंचित रखा। दिया ।
-- देवकामता दीक्षित