नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: महाराज जगत पिता थे, सर्वोपरि थे वे…
संतों का स्मरण मात्र अनेक जन्मों के संतापों को नष्ट कर देता है। यह भारत भूमि संतों, महात्माओं, ऋषियों और मुनियों की जननी रही है। एतद्देश प्रसूतस्य सकशादग्रजन्मनः । स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवः ।। अर्थात् इस पवित्र देश में उत्पन्न हुए ब्रह्मविदु अग्रजन्मा साधु-महात्माओं ने अपने उज्ज्वल चरित्र के द्वारा ही अखिल भूमण्डल के मानवों को शिक्षित किया, व्यवहार सिखाया, मर्यादा में बांधा। भारतीय संतों की आध्यात्मिक सिद्धि की कहानियों से वेद, उपनिषद्, पुराण, स्मृतियाँ भरे पड़े हैं। संतों का जीवन बहती हुई नदी की भाँति है जो अग-जग के कलुष नष्ट करता हुआ प्राणियों की तृषा को बुझाता है और शान्ति एवं शीतलता प्रदान करता है।
प्रातः स्मरणीय पूज्य बाबा नीब करौरी महाराज भारतवर्ष की एक ऐसी ही दिव्य विभूति थे, जिन्होंने न जाने कितने प्राणियों का कल्याण किया। उत्तुङ्ग हिमालय जैसी सुन्दर काया, जिसमें दया दृष्टि के बहते हुए अनन्त निर्झर स्रोत जिसके अंक में विद्यमान अगाध शीतलता, जिसकी मधुर मुस्कान का शुभ्र हिमाच्छादन, चन्द्र और सूर्य की किरणों के चन्दन से आलेपित ललाट, भक्त रूपी वनस्पतियों का आश्रय स्थल, आने संकल्प और ध्यान में सुस्थिर सुदृढ़ पादमूल वाले बाबा के दिव्य रूप पर ऐसा कौन है, जो न्यौछावर न हुआ हो ?
बात उन दिनों की है जब मैंने अपनी स्नातकोत्तर परीक्षा (एम. ए) उत्तीर्ण की थी और अपने भाई के साथ बद्रीनाथ यात्रा पर गई थी। वहाँ एक सप्ताह रुकना था। हिन्दू परिवार की भगवदास्था, आस्तिकता एवं निष्ठा के संस्कार बीज रूप में मुझमें विद्यमान थे। इसीलिए मैं भी बद्रीनाथ भगवान के दर्शन करने गयी थी।
एक दिन भगवत्सेवा और से निवृत्त होने के बाद अपने कक्ष में बैठी हुई थी। एक सज्जन, नितान्त अपरिचित थे, मेरे पास आये और बोले - आपको बाबा नीब करौरी महाराज बुला रहे हैं।" मैं झिझकी और सोचा कौन हैं ये बाबा ? लेकिन पुनः मेरे आस्तिक भाव ने प्रेरित करते हुए मुझे जाने के लिए उद्यत कर ही दिया और मैं उन्हीं सज्जन के साथ बाबा के पास पहुँची। बाबा ने मुझे देखते ही कहा, "तू मुझे याद कर रही थी, कई दिन से तू मुझे याद कर रही थी।" मैं बाबा की ऐसी बेतुकी और अटपटी बातें सुनकर एक क्षण के लिए ठिठकी और सोचा मैं इस बाबा को क्यों याद करने लगी?
मैं महाराज का स्मरण करती हुई चलती रही, कुत्ते भी मेरे साथ पाँच फीट की दूरी पर ही अपनी हरकत करते हुए चलते रहे। बहुत दूर तक उन्होंने मेरा पीछा किया, लेकिन वे मेरा बाल भी बाँका नहीं कर पाये। सामान्यतः इन कुत्तों से बच पाना बहुत ही कठिन है। वे मेरी बोटी-बोटी काटकर छिन्न-भिन्न कर देते, पर महाराज जी मेरे साथ जो चल रहे थे। भला वे अपने भक्त का त्राण नहीं करते।
लेकिन तत्काल ध्यान आया कि संतों में और भगवान में कोई अन्तर नहीं होता। भगवान बद्रीनाथ का ध्यान तो मै रोज करती ही हूँ। मेरी निष्ठा को बल मिला और मैंने उसी क्षण कहा 'हाँ बाबा मैं याद कर रही थी। पता नहीं वह कौन सी शक्ति थी, जिसने मुझे आपके पास तक बुलाया था और अब यह भी कहलवा लिया कि उसकी मैं याद कर रही थी। इस विस्मयपूर्ण घटना से मैं दंग थी और मेरी स्थिति भावगद्गद् हो गयी थी। मेरी आस्तिकता के बीज अंकुरित होकर अब वृद्धि और समृद्धि की ओर थे और मैं एकटक बाबा महाराज की विभिन्न दिव्य मुद्राएँ देखने में डूबी हुई थी।
कुछ क्षणों के लिए इस स्थिति में रहने के बाद मैंने देखा मुसकराते हुए बाबा का वह दिव्य मुखारबिंद, जिस पर भात- त प्राण बलिहारी थे। बाबा ने अपनी अर्द्ध निमीलित आँखों से मेरी ओर देखा और तत्काल बोले, "अब तुम यहाँ जब तक रहोगी, तब तक तुम्हारे द्वारा बनाया हुआ भोजन ही पाऊँगा।" मैंने अपनी सहर्ष स्वीकृति दे दी। मुझे इस क्षण में ऐसा लगा जैसे मेरी चिरकांक्षित साध पूरी हो गयी हो। वहाँ कुछ भक्तों ने बताया कि बाबा ने तुमको याद किया था और अपनी आध्यात्मिक दिव्यदृष्टि से तुम्हारे ऊपर कृपा करने हेतु ही तुम्हें यहाँ बुलाया है।
मेरे हर्ष का ठिकाना नहीं था। रोम-रोम हर्ष से आप्लावित था, फिर "तुम्हारे द्वारा बनाया हुआ भोजन ही पाऊँगा।" यह आदेश, हृदय में आनन्द की लहरियाँ उठा रहा था। बाबा के स्वभाव उनके रहन-सहन, नित्य चर्या, उपासना, साधना और भोजन आदि की प्रकृति से मैं नितांत अपरिचित थी। जैसा आदेश था उसका पालन और स्वाभाविक था। इसी के अनुरूप मैंने भोजन तैयार किया और महाराज जी को खिलाने ले गयी। जहाँ महाराज रहते वह स्थान मेरे निवास से कुछ ऊंचाई पर दूरस्थ था और निर्जन वन में होकर रास्ता था। यह भोजन कराने का क्रम कुछ दिन चला। एक दिन बाबा को अपना चमत्कार दिखाना था, जिसका भाव
यह था कि मैं अपने शरणार्थी की कैसे रक्षा करता हूँ। मैं शाम को भोजन कराने हेतु गयी, लौटते में अंधकार काफी हो गया, परन्तु मैं वहाँ से अकेली चल पड़ी। बाबा ने किसी को यह आदेश नहीं दिया कि कोई मुझे मेरे निवास तक छोड़ देता। मैं अपने आत्मबल और महाराज की कृपा का सम्बल ग्रहण कर चल रही थी। कुछ ही रास्ता तय कर पायी थी कि जंगली कुत्तों ने मुझे घेर लिया। अब क्या था, वही द्रोपदी जैसा आर्न्तनाद।
मैं महाराज का स्मरण करती हुई चलती रही, कुत्ते भी मेरे साथ पाँच फीट की दूरी पर ही अपनी हरकत करते हुए चलते रहे। बहुत दूर तक उन्होंने मेरा पीछा किया, लेकिन वे मेरा बाल भी बाँका नहीं कर पाये। सामान्यतः इन कुत्तों से बच पाना बहुत ही कठिन है। वे मेरी बोटी-बोटी काटकर छिन्न-भिन्न कर देते, पर महाराज जी मेरे साथ जो चल रहे थे। भला वे अपने भक्त का त्राण नहीं करते। उन्होंने तो मुझे अपना भक्त बनाने के लिए ये सारी रहस्यमय लीलाएँ दिखायीं थी। मैं जैसे-जैसे घर पहुँची और दूसरे दिन जब मैंने महाराज जी के दर्शन के किये तो वही मधुर रहस्यमयी मुसकराहट। उन्होंने कल की घटना जैसे अपनी आँखों की देखी हो। महाराज जी से मेरा यह प्रथम परिचय था, जिसने मुझे समर्पित करा दिया था।
पूज्य बाबा महाराज जगत्पिता थे। वे मेरे भी पिता ही थे और सर्वोपरि थे वे, मेरे आध्यात्मिक गुरु। मैं ऐसे पुण्य भलोक, पतितपावन महाराज जी के दिव्य चरण कमलों में अपनी अनन्त श्रद्धांजलि अर्पित हूँ। करती
राम !!
-- उषा बहादुर/ नई दिल्ली