नीब करौरी बाबा की अनंत कथाएँ: जब महाराज जी एक महिला भक्त की गोदी में आ बैठे और उसे लगा जैसे एक रुई का गोला रख दिया हो!
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के आदर्शों में पगी और संत-महात्माओं के मर्यादित आचरण के प्रति एक निश्चित धारणा रखने वाली मैं, बाबा जी महाराज की अत्यन्त भ्रामक और कभी कभी संतों से अपेक्षित आचरण के विपरीत-सी लगने वाली लीलाओं को देख देख बहुत भ्रमित हो चली थी महाराज जी के सत्यरूप के प्रति ।
साथ में मातृवर्ग का महाराज जी के साथ अन्तरंग-रूप व्यवहार तथा महाराज जी का भी उनके साथ उसी प्रकार का खुलापन मुझे साधु-महात्माओं के प्रति अपने परम्परागत विचारों के विरुद्ध ही लगता था एक घुटा घुटा-सा रोष मेरे मन-मानस में घुमड़ता रहता था महाराज जी के खिलाफ । परन्तु साथ में महाराज जी की प्रेमडोर भी तो नहीं टूट पा रही थी मुझसे !!
और मेरी ही तरह (भ्रमित होते हुए भी) मेरे पति (इस 'लघु भागवत' के लेखक) भी महाराज जी की प्रेम-रज्जु के बन्धन में जकड़े जा चुके थे अतः वे भी मुझे निश्चित रूप में कोई मार्ग-दर्शन न कर सके। बाबा जी के प्रति अपने रोषपूर्ण भाव से व्यथित मैं एक-दो बार पूछ भी चुकी थी उनसे “आप बताते क्यों नहीं आप हैं कौन, और आपकी ये उल्टी- सीधी लीलाएँ आखिर क्या हैं और किसलिए हैं ?”
महाराज जी की कुछ अनन्य भक्त-माइयों तथा परिकरों से भी इन प्रश्नों का उत्तर उनकी अपनी अनुभूतियों के आधार पर बताने की भी मैंने प्रार्थना की । परन्तु कोई भी मुझे संतोषप्रद उत्तर न दे पाया । तब महाराज जी ने ही कहा था, “कोई नहीं समझा सकता तुझे । समय आने पर मैं ही समझाऊँगा ।" पर इसे भी मैंने उनकी मुझे बहलाने की ही एक और लीला समझी और एक दिन जब मैंने कहा, “महाराज मेरी तो कागभुशुडि सी गति हो गई है, तो उत्तर में महाराज जी ने कह दिया, “वो तो होगी ही !!" सुनकर मैं और भी अस्थिर हो गई, यद्यपि (तभी) संकेत सा देते हुए पास बैठी श्रीमती क्रान्ती साह की तरफ मुँह कर वे बोल उठे थे अपने जन के कारणा, श्री कृष्ण बने रघुनाथ ।
और एक दिन तो मैंने प्रण ही कर लिया कि मैं अब बाबा जी के पास जाऊँगी ही नहीं। परन्तु उसी दिन दोपहर बाद ही साढ़े तीन बजे मैं पुनः बाबा जी द्वारा खींच ली गई । (सब कुछ तो वे ही संचालित कर रहे थे !!) तब फिर मैंने अपना आखिरी दाँव मारा, "महाराज, आप बताते क्यों नहीं अपने बारे में सत्य ? मैं अब सबको सचेत करूँगी कि आपके पास आना सर्वथा निरर्थक है किताब भी लिखूँगी”, और भ्रमित करते रहे अपने को धोखा देना है। मैं आपके खिलाफ आदि आदि । तब भी बाबा जी मुझे कुछ देर (१) मुझसे अपने कान पकड़वाकर (२) और कसम खाते, “तेरी साँ, मैं तुझे सब बता दूँगा । तू तो मेरी गुरु-माई है !!" (३) “तेरे भाव खराब हो गये हैं मेरे लिये। तू मुझे बालरूप में क्यों नहीं देखती ?”
आदि और जब उनके इस नाटक मेरा रोष पराकाष्ठा तक पहुँच गया तो महाराज जी तखत से नीचे उतर मेरी गोद में बैठते हुए बोल उठे, “तेरे तीन तो थे ही तुझे तंग करने को, (हमारे तीन पुत्र है) एक मैं भी हो गया !!" (कहाँ बाबा जी का लम्बा-चौड़ा भारी-भरकम शरीर और कहाँ चार फीट कुछ इंच की मेरी जन्मजात रोगग्रस्त दुबली पतली काया !! कल्पना की जा सकती है स्थिति की - सिवा और क्या होता ?) कुचल जाने के
परन्तु जब महाराज जी उक्त बात कहते मेरी गोद में बैठ गये तो मुझे लगा कि मानो मेरी गोद में एक रुई का छोटा बन्डल अथवा फोम का तकिया आ गया है अपना ही वजन लिये !! किन्तु उनके एकाएक इस अप्रत्याशित हमले से मैं तो एकदम अवाक और बुद्धि शून्य हो गई । और अपनी बदहवासी में मैं (तब) यह भी ठीक से न देख पाई कि ऐसा करते वक्त बाबा जी का आकार क्या था । हाँ, इतना निश्चित था कि उनके मेरी गोद में बैठ जाने के बाद भी मैं सामने रखे उनके तखत को भी देख सकती थी और उन्हें भी पूरी तरह । (निश्चित ही शरीर बालरूप धारण कर चुका होगा ।) तभी मेरे मुँह से बरबस निकल गया – 'बन्दौं बालरूप सोइ रामू ।'
और इतना सुनते ही महाराज जी फफक कर रो उठे और कुछ क्षणों बाद मेरी गोद से उठकर पुनः तखत पर जा बैठे उसी प्रकार सिसकते, अविरल अश्रुपात करते। मैं यह लीला देख और भी विस्मित हो गई।
उसी फिर महाराज जी ने अपना मुँह ढक लिया कम्बल से तरह रोते-सिसकते। कुछ देर बाद मुझसे कहा – “अब तू जा ।” मैं कमरे से निकली तो उन्होंने स्वयं भीतर से उसी विहवल अवस्था में दरवाजा बन्द कर लिया पर कुछ देर बाद पुनः पूर्णरूपेण प्रकृतिस्थ हो बाहर बैठक में आकर बैठ गये !! परन्तु इस लीला से अपने अन्तर में उठे तूफान शान्त होने पर मैंने पाया कि महाराज जी ने मेरे प्रश्न 'आप कौन है' के का स-पुष्टि उत्तर दे दिया था - मुझे अपने बालस्वरूप की अनुभूति कराकर !!
इस संदर्भ में एक और तथ्य प्रगट करना अप्रासंगिक न होगा । यद्यपि पूर्व में में बाबा जी से उनकी भ्रामक लीलाओं के कारण अत्यंत क्षुब्ध थी और ऐसा प्रगट भी कर देती थी उनके समक्ष, परन्तु फिर भी, न मालूम क्यों (महाराज जी की ही माया थी यह भी कि) रामायण के एक विशिष्ट संदर्भ का नित्य पाठ करती थी बाबा जी के ही चित्र के आगे उन्हीं को लक्ष्य कर मनु की श्री राम से प्रार्थना -
'चाहहुँ तुमहिं समान सुत, प्रभु सन कवन दुराव ।”
और भगवान का उत्तर
आप सरिस खोजों कहँ जाई । नृप तव तनय होब मैं आई ।।
और एक दिन यही पाठ मैंने अपने मझले पुत्र पन्नू द्वारा महाराज जी के समक्ष भी उनकी ओर देखते हुए करवा दिया । तब महाराज जी “बहुत चल्लाक (चालाक) है” कहकर मेरी तरफ मतलब भरी मुस्कराहट के साथ देखते हुए उठकर दूसरे कमरे को चले गये । परन्तु “तेरे तीन तो थे ही, एक भी हो गया" सुनकर तथा बाद मैं उस पर मनन करने पर मुझे अन्ततोगत्वा यही लगा कि एहिमिस महाप्रभु ने मेरी 'चाहहुँ तुमहि समान सुत' की प्रार्थना को भी स्वीकार कर लिया !!
कुछ भी तो असम्भव न था महाप्रभु के लिये । सत्तर वर्ष की वृद्धा लीलामाई की गोद में बालरूप धारण कर तो स्तनपान भी कर लिया था। उन्होंने भरपूर !!
और उक्त तथा अन्य लीलाओं की परिणति वृन्दावन में वर्ष १६७३ की होली के अवसर पर हो गई । परम्परागत रूढ़ता में बँधी मैं सदा ही पुष्प-मालाओं को बाबा जी के श्री चरणों में या (पलथी मारे बैठे) बाबा जी के घुटनों में चढ़ाती रही (इस भाव के अन्तर्गत कि माला केवल भगवान के या पति के गले में डाली जानी चाहिए ।)
परन्तु उस दिन बिहारी जी से लौटी तो मैंने वहाँ प्राप्त पुष्प-माला भीतर कुटी में बैठे महाप्रभु के गले में डाल दी !! और फिर अपने ही कृत्य से भाव में आकर उन्हीं की गोद में अपना मुँह छिपा लिया । तभी महाराज जी ने भी वह माला अपने गले से उतार कर मेरे गले में डाल दी, कहते हुये। पहिराय दई !!" “लो, आज हमने भी इसी प्रसंग के बाद उन्होंने कहा था 'तेरे लिये (तेरी रूढ़िगत कुंठाओं को दूर करने में) हमें बहुत मेहनत करनी पड़ी ।'
-- रमा जोशी