जाने कहां गए वो लोग: एम ए हफीज साहब

जाने कहां गए वो लोग: एम ए हफीज साहब

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आज से 50 साल पहले हम अपने पिता पत्रकार बिशन कपूर और परिवार के साथ मंसूरी के सेवॉय होटल में पत्रकारों के सम्मेलन में बैठे हुए थे और हमारे साथ वरिष्ठ पत्रकार एम ए हफीज साहब भी थे। हम तीन भाई हफीज साहब से अपनी शरारतों के बारे में बता रहे थे की कैसे एक पड़ोसी के घर से फुल वॉल्यूम मैं गाने और म्यूजिक से परेशान होकर क्या क्या करते थे।

यह एक इतेफाक था की हमारे पड़ोसी पहले हफीज साहब के पड़ोसी थे ब्लंट स्क्वायर चारबाग मैं। तो हफीज साहब ने बताया कि वे और पूरा मोहल्ला इस पड़ोसी के घर से फुल वॉल्यूम म्यूजिक और गाने से परेशान था और किसी तरह से उनको ठीक किया गया।

हम तीन भाइयों और हफीज साहब के मजाकिया अंदाज सुनकर जो सज्जन आगे बैठे थे उन्होंने पलट कर देखा तो हफीज साहब ने हमलोगों का परिचय केंद्रीय मंत्री केदार नाथ सिंह जी से कराया। जितने दिन हमलोग हमलोग मंसूरी रहे तो हफीज साहब, ए एन सप्रू जी, राम उग्रह जी और सुरेश अखौरी जी से खूब हंसी मजाक रहा। वे भी खूब हम बच्चो के साथ बच्चा बन कर शरारत मैं शामिल रहते थे।

With his son in lighter moments
With his son in lighter moments

मंसूरी से लौटने के बाद हफीज साहब से बराबर मुलाकात होती रही। वे अपने अभिन्न मित्र सुरेश सिंह जी, जो उस समय स्वतंत्र भारत अखबार में थे, के साथ घर आते थे मेरे पिता से मिलने। उस दौर में हफीज साहब और सुरेश सिंह जी हमें साथ साथ दिखाई देते थे।

उस ज़माने में पत्रकारों के प्रेस क्लब में कुछ प्रोग्राम होते थे जहां परिवार भी जाते थे तो सबसे मुलाकात होती थी। जब हमने पत्रकारिता शुरू की पहले पायनियर और फिर ब्लिट्ज मैं गए तो हफीज साहब और सुरेश सिंह जी का स्नेह और मार्गदर्शन मिला। दोनो अपनी जिम्मेदारी समझ कर हमें हर मामले में मदद करते थे। चाहे वो प्रेस कांफ्रेंस हो या किसी राजनेता से मिलना हो।

सुरेश सिंह जी तो अमृत प्रभात दिल्ली चले गए लेकिन हफीज साहब एनआईपी लखनऊ में रहे। मुझे याद है कई बार प्रेस कांफ्रेंस के बाद हफीज साहब अपनी स्कूटर पर बैठा कर अपनी प्रिय पान की दुकान कैपिटल सिनेमा के पास ले गए और पान खिलाए। मुझे हफीज साहब का अपने से कम उम्र के लोगो के साथ दोस्ताना व्यवहार बहुत पसंद आया।

एक ज़माने में जब हम कांग्रेस के नेता क्रांति कुमार के घर जाते तो सामने ही हफीज साहब का घर और पत्रिका का ऑफिस होता था तो हम उनसे भी मिलने चले जाते थे। ईद और बकरीद भी हफीज साहब के घर जाना होता था।

मैंने देखा हफीज साहब जब एनआईपी में थे या जब हिंदुस्तान टाइम्स में थे किसी भी प्रेस कांफ्रेंस हो या कोई समारोह हो बहुत संजीदगी से नोट्स लेते थे और उनका सवाल पूछने का अंदाज भी निराला था। जिससे सवाल पूछते वो भी परेशान हो जाता था।

हम अपने खुसनासीब समझते हैं की हफीज साहब और उनकी पीढ़ी के पत्रकारों के स्नेह और मार्गदर्शन मिला। हालांकि हफीज साहब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी यादें हमेशा हमारें साथ रहेंगी।

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