“निन्दा और प्रशंसा दोनों ही भावों से अयोध्या का तिरस्कार न केवल अविवेकपूर्ण अपितु अपराध भी है”

“निन्दा और प्रशंसा दोनों ही भावों से अयोध्या का तिरस्कार न केवल अविवेकपूर्ण अपितु अपराध भी है”

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अयोध्या के चुनाव परिणाम को लेकर अनेक आतुर प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं। इनमें से अधिकांश निराधार, अवमाननापरक और कुण्ठा से भरी हुई हैं। निन्दा और प्रशंसा दोनों ही भावों से अयोध्या का तिरस्कार न केवल अविवेकपूर्ण अपितु अपराध भी है। भूलोक की प्रथम पुरी यह विश्वविश्रुता अयोध्या ही है जिसने, धर्मविग्रह पुत्र को प्रकट किया, उसे तपाकर मर्यादापुरुषोत्तम का गौरव दिया और राजा राम के रूप में मानव-चेतना में अनन्त काल के लिये अमर कर दिया।

ये अयोध्यावासी ही हैं जिन्होंने, अपने राम के लिये असह्य दुःख सहे, त्याग किये और जिनको अपना कहकर श्रीराम ने अपने को बहुमानित समझा। यही अयोध्या है और यही श्रीराम का नाम जिसने, भारत देश को सारे समीकरणों और अनुमानों के पार कल्पनातीत शक्ति और सत्ता का बल दिया और इस लोकतान्त्रिक राजनीति की चञ्चल चालों के बीच तीसरी बार पुनः बहुमत दिया है।

यही अयोध्या है जिसको केन्द्र में रखकर भारत देश अपनी स्वयत्तता, सम्प्रुभता और खोया हुआ स्वाभिमान पुनः प्राप्त कर रहा है। इसी अयोध्या की रज में विश्व का श्रेष्ठतम कहलाने वाला नेता आकर साष्टांग पड़ जाता है। परन्तु, यह अयोध्या किसी राजनैतिक दल, किसी राजनेता अथवा किसी एक घटना से परिभाषित नहीं होती। इसने अपने राम को वन जाते देखा है, इसने धर्मधुरन्धर महाराज दशरथ को बिलख-बिलखकर देहत्याग करते देखा है। इसने ही अपने राम के लिये चौदह वर्षों तक दुःसाध्य तप किया है और फिर उनको घर लौटाकर सिंहासनाधिरूढ़ किया है, उनका विरुद गान किया है।

अयोध्या किसी के हारने या जीतने से उसकी या परायी नहीं हो जाती। यह बस उनकी है जो श्रीराम के हैं और यह अपने सत्य की प्रतिष्ठा के लिये अपने राम को भी वन भेज देती है, क्योंकि इसका नाम ही सत्या है। इसको अभिशप्त और धोखेबाज कहने वाले अपक्वबुद्धि इसके नाम भी ठीक से न जानते होंगे।

अस्तु ,

कृपया यह न समझें कि मैं अयोध्या की पैरवी कर रहा हूँ , इस लेख का आशय मात्र इतना है कि किसी आवेग में आपा न खोयें। राजनीति की छणभंगुर उठापटक को देखकर सनातन अवधारणाओं को लाञ्छित न करें। श्रीराम और भगवती सीता की कल्पित कथाओं और तुकबन्दियों के छल से मनुष्यता की राजधानी का अपमान न करें। इसी बीच कुछ दुर्दैवज्ञ अपनी कुण्ठायें व्यक्त करने लग गये हैं कि सही मुहूर्त्त में प्रतिष्ठा न होने का दुष्परिणाम है ये।

ऐसी निराधार और अविचारित बातें न केवल आपकी अपितु रामत्व की मर्यादा के भी प्रतिकूल हैं। 'सकृत प्रनाम किये अपनाये..' वाली उदारकीर्त्ति वाले प्रभु को मुहुर्त्त से परिभाषित करने से बचें।आपकी यह 'सियासी वफादारी' न मोदी जी पसन्द करेंगे, न योगी जी..

— आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण

(लेखक आध्यात्मिक विचारक, दार्शनिक व महन्त-श्रीहनुमन्निवास, अयोध्या हैं, ये विचार उनकी सोशल मीडिया वाल से लिया गया है)

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