...तो इसलिए अकेले चुनाव लड़ना चाहती हैं मायावती!
लखनऊ, जनवरी 16 (TNA) बहुजन समाज पार्टी (बसपा) में 15 जनवरी का दिन बेहद ही महत्वपूर्ण माना जाता है. इस दिन बसपा सुप्रीमो मायावती का जन्मदिन होता है. और इस दिन मायावती पूरे साल पार्टी किस राजनीतिक दिशा में चलेगी, इसका ऐलान करती हैं. सोमवार 15 जनवरी को भी मायावती ने अपने उत्तराधिकारी आकाश आनंद की गैरमौजूदगी में पार्टी के राजनीतिक एजेंडे का खुलासा किया.
जिसके चलते मायावती ने यह ऐलान किया है कि आगामी लोकसभा चुनाव में बसपा इंडिया गठबंधन का हिस्सा नहीं बनेगी बल्कि अकेले चुनावी मैदान में उतरेगी. मायावती के अनुसार गठबंधन कर चुनाव लड़ने से बसपा को फायदा नहीं नुकसान होता है. नुकसान कैसे होता है? इसका कारण भी मायावती ने बताते हुए गठबंधन के सियासी दौर में एकला चलो की राह पर चलाने का ऐलान कर बहुजन समाज से पार्टी को मजबूत करने की अपील की.
इसके साथ ही मायावती ने पार्टी से जुड़े बहुजन समाज को बताया है कि लोकसभा चुनावों के बाद सरकार में उचित भागीदारी मिलने पर समर्थन दिया जा सकता है लेकिन यह समर्थन मुफ्त (फ्री) में नहीं दिया जाएगा. मायावती ने राजनीति से संन्यास लेने संबंधी खबरों को निराधार बताया है. मायावती के अनुसार, आकाश आनंद को उत्तराधिकारी बनाए जाने के बाद से ही इस तरह की खबरें चलाई जा रही हैं. इनका कोई आधार नहीं है. मायावती का कहना है कि वह अपनी अंतिम सांस तक वह बसपा को मजबूत करने में जुटी रहेगी.
अपने 68वें जन्मदिन पर यह दावे करते हुए मायावती लोकसभा के चुनावों के पहले बसपा के कांग्रेस के साथ गठबंधन करते हुए इंडिया गठबंधन का हिस्सा बनने की चल रही अटकलों पर पूरी तरह से विराम लगा दिया. अब बसपा अपने दम पर अकेले ही देशभर में लोकसभा चुनाव लड़ेगी. पार्टी नेताओं का दावा है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बाद बसपा ही देश में सबसे अधिक सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़ा करेंगी.
इसलिए अकेले चुनाव लड़ेगी बसपा
बसपा के गठबंधन कर चुनाव ना लड़ने को लेकर बसपा नेताओं का कहना था कि पार्टी सुप्रीमो मायावती ने मीडिया से साफ शब्दों में यह कहा कि देश में लोकसभा चुनाव को लेकर अब बहुत कम समय बचा है. ऐसे में मायावती ही तैयार की गई चुनावी रणनीति और निर्देशों पर चलकर पार्टी बेहतर चुनावी परिणाम हासिल करने का प्रयास करेगी. रही बात किसी राजनीतिक दल से गठबंधन किए बिना अकेले ही चुनाव लड़ने की तो इसकी दो प्रमुख वजह हैं, बसपा का नेतृत्व एक दलित के हाथ में है. दूसरी वजह है, देश के अधिकांश पार्टियों की जातिवादी मानसिकता अभी तक नहीं बदली है.
जिसके चलते ही पार्टी ने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया है. ताकि पार्टी के जनाधार का नुकसान ना हो. मायावती इस संबंध में अपने विचार मीडिया को बयाते भी. मायावती के मुताबिक गठबंधन कर चुनाव लड़ने पर बसपा का वोट पूरा चला जाता है, लेकिन उनका अपना बेस वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं होता है. खासकर अपर क्लास का वोट बसपा को ट्रांसफर नहीं हो पाता है.
फिर वर्ष 1996 में बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था, तो उसकी सीटें तो नहीं बढ़ी, लेकिन कांग्रेस का वोट उसे जरूर मिला और बसपा के वोट प्रतिशत में इजाफा हुआ था. इसी तरीके से वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने सपा के साथ मिलकर लड़ा था तो 10 सीटों पर जीत मिली. जबकि वर्ष 2014 में बसपा ने देश बाहर में सबसे ज्यादा सीटों पर पाने प्रत्याशी खड़े कर अकेले चुनाव लड़ा था लेकिन उसे एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी.
बसपा के साथ यह कब -कब हुआ? इसका जिक्र भी मायावती ने किया. मायावती ने वोट ट्रांसफर नहीं होने का जिक्र करते हुए कहा कि यूपी में सपा के साथ वर्ष 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में गठबंधन करने का फायदा बसपा को नहीं मिला था. तब बसपा 67 सीटें ही जीत सकी थी जबकि सपा को गठबंधन का ज्यादा लाभ मिला था. इसके बाद वर्ष 1996 में कांग्रेस के साथ बसपा ने यूपी में गठबंधन कर चुनाव लड़ी थी, जिसमें पार्टी 67 सीटें ही जीतकर आई थी. इस चुनाव में कांग्रेस को ज्यादा फायदा मिला था. फिर जब वर्ष 2002 चुनाव में बसपा अकेले चुनाव लड़ी तो उसे करीब सौ सीटें मिली.
वर्ष 2007 में तो अकेले चुनाव लड़कर बसपा ने यूपी में सरकार बना ली. इन आंकड़ों के आधार पर मायावती ने कहा कि गठबंधन को लेकर पार्टी और उनका अनुभव यही है कि गठबंधन से हमें फायदा कम और नुकसान ज़्यादा होता है. गठबंधन करने से बसपा का वोट प्रतिशत भी घट जाता है जबकि दूसरी पार्टियों को लाभ मिलता है. इसी वजह से देश में ज्यादातर दल बीएसपी के साथ गठबंधन करना चाहते हैं, लेकिन पार्टी ने सोच-विचार करके तय किया है कि बसपा को अकेले ही चुनाव लड़ना चाहिए. बहुजन समाज भी यही चाहता है कि बसपा चुनाव से पूर्व कोई भी गठबंधन ना करे और चुनावों के नतीजे के बाद केंद्र और राज्य में बनने वाली सभी सरकारों को समर्थन देने का फैसला करे.
मायावती के दावे से अलग है हकीकत
बसपा सुप्रीमो मायावती भले ही यह दावा कर रही हैं कि चुनावी गठबंधन से बसपा को फायदा नहीं होता, बल्कि नुकसान होता है. लेकिन उनका यह दावा हकीकत से उलट है. चुनावी आंकड़े बताते हैं कि बसपा जब भी यूपी में गठबंधन कर चुनाव लड़ी हैं तो उसे सियासी लाभ मिला है. वर्ष 1993 से पहले बसपा यूपी में दस से पंद्रह विधानसभा सीट जीतने वाली पार्टी थी. जबकि वर्ष 1993 में जब कांशीराम ने मुलायम सिंह यादव से चुनावी गठजोड़ कर चुनाव लड़ा तो बसपा 12 सीटों से 67 सीटों पर पहुंच गई.
फिर वर्ष 1996 में बसपा ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया था, तो उसकी सीटें तो नहीं बढ़ी, लेकिन कांग्रेस का वोट उसे जरूर मिला और बसपा के वोट प्रतिशत में इजाफा हुआ था. इसी तरीके से वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने सपा के साथ मिलकर लड़ा था तो 10 सीटों पर जीत मिली. जबकि वर्ष 2014 में बसपा ने देश बाहर में सबसे ज्यादा सीटों पर पाने प्रत्याशी खड़े कर अकेले चुनाव लड़ा था लेकिन उसे एक भी सीट हासिल नहीं हुई थी.
जबकि बसपा से ही निकले सोनेलाल पटेल की पार्टी दे यूपी में दो लोकसभा सीटों पर भाजपा के साथ मिलकर जीत हासिल की थी. इसी तरह से बीते विधान सभा चुनाव में भी बसपा ने अकेले चुनाव लड़ा लेकिन यूपी की सिर्फ एक ही विधानसभा सीट पर उसे जीत हासिल हुई. इसलिए यह कहना कि गठबंधन कर चुनाव लड़ने से बसपा को फायदा नहीं होता, पूरी तरह से सही नहीं है.
— राजेंद्र कुमार