सत्ता के डर के आगे विपक्षी एकता है, जेल के डर के आगे विपक्षियों की एकता...

सत्ता के डर के आगे विपक्षी एकता है, जेल के डर के आगे विपक्षियों की एकता...

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डर के आगे जीत हो ना हो पर डर दूरियों और बिखराव को दूर करके एकता स्थापित करने में कारगर होता है। देश की सियासत की बात की जाए तो बिखरा हुआ विपक्ष भ्रष्टाचार और हेट स्पीच मामलों में गिरफ्तारियां के तेज होते सिलसिले में एकता के सूत्र में बंधने के संकेत दे रहा है। अप्रत्यक्ष तौर पर देश के तमाम विपक्षी दलों का एक मुद्दा तय हो गया है- " लोकतंत्र बचाओ"

ये जुमला सभी के लबों पर है। इस वाक्य के धागे में सभी भाजपा विरोधी दल जुड़ जाएंगे ऐसे आसार नजर आने लगे हैं। कांग्रेस के शीर्ष नेता राहुल गांधी को हेट स्पीच मामले में सज़ा सुनाए जाने और फिर उनकी संसद सदस्यता जाने के खतरों के बाद क्षेत्रीय दलों के शीर्ष नेताओं का डर लाज़मी है। ऐसे में राहुल के समर्थन में आम आदमी पार्टी और सपा का बयान एक नई सियासी तस्वीर के आसार पैदा कर रही है। जबकि आम आदमी पार्टी और कांग्रेस धुर विरोधी हैं। समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव और कांग्रेस की कटुता बढ़ रही थी। अखिलेश कांग्रेस को भाजपा जैसा ही बता रहे थे। अमेठी और रायबरेली में पहली बार अपने उम्मीदवार खड़ा करने की बात कर रहे थे। लेकिन राहुल गांधी को सजा सुनाए जाने के बाद वो राहुल के समर्थन में आ गए और खुद की गिरफ्तारी की आशंका जताने लगे।

भाजपा विरोधी दलों के सेकेंड लाइन के नेताओं के जेल जाने के सिलसिले के बाद पार्टी के प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी का नंबर आने का संकेत देश की सियासत का रुख मोड़ सकता है। सपा के आज़म ख़ान और आप के मनीष सिसोदिया जैसे तमाम नेताओं की गिरफ्तारी और सदन की सदस्यता जाने के खतरें के बाद ताजुब नहीं कि अखिलेश यादव, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, तेजस्वी यादव जैसे पार्टी प्रमुखों पर को भी ऐसी कठिन स्थितियों का सामना करना पड़े।

इसलिए जो क्षेत्रीय दल अपने अपने सूबों में अपना जनाधार क़ायम रखने के लिए कांग्रेस से दूरी बना रहे थे शायद इन्हें अब अपने ऐसे फैसले से पलटना पड़े। क्योंकि जनाधार बचाने से ज्यादा जरूरी इनका खुद का बचना है। विपक्षियों के आरोपों के अनुसार यदि सचमुच लोकतंत्र खतरे में है तो लोकतंत्र बचाना उनका सबसे बड़ा फर्ज है। यदि किसी भी दौर में लोकतंत्र कमजोर होता है तो विपक्ष का पहला कर्तव्य लोकतंत्र बचाना होता है।

इसलिए क्षेत्रीय दलों को अपना वर्चस्व या जनाधार क़ायम रखने से भी अहम है एकजुट होकर लड़ना। इतिहास गवाह है इंदिरा गांधी की ताकतवर सरकार और आपातकाल के खिलाफ देश के सभी कांग्रेस विरोधी दलों ने अपने-अपने दलों आ अस्तित्व मिटा कर जनता पार्टी को एक सियासी विपक्षी ताक़त बनाया था। और इस त्याग, समर्पण और एकजुटता ने कांग्रेस की ताकतवर सरकार को उखाड़ फेका था।

आगामी लोकसभा चुनाव में विपक्षियों के लिए भाजपा को शिकस्त देना जितना जरूरी है उतनी ये काम कठिन है। फिलहाल आज भाजपा से लड़ने के लिए कोई एक दल सक्षम नहीं लगता। एंटीइनकमबेंसी के साथ विपक्षी एकता की केमिस्ट्री ही भाजपा को चुनौती दे सकती है। हर चुनाव में एंटीइनकम्बेंसी सत्तारूढ़ पार्टी के लिए बड़ी चुनौती होती है इसलिए भाजपा के लिए लोकसभा चुनाव में डबल-ट्रिपल एन्टीइनकमबेंसी का खतरा तो बना ही हुआ है। तमाम राज्यों में भाजपा सरकारों के दो-तीन कार्यकाल हो चुके हैं, केंद्र में जनता ने दो बार भाजपा को प्रचंड बहुमत दिया।

फिर भी लोकसभा चुनाव में भाजपा को कोई अकेला दल बराबर की टक्कर देने की स्थिति में नहीं है।‌ राजनीतिक पंडितों का मत है कि सारे विपक्षी एक हो जाएं तब ही भाजपा को चुनौती दी जा सकती है। फिर भी एकजुटता के बजाय विपक्षियों के बीच बिखराव, तनाव, अलगाव और कटुता बढ़ती जा रही थी। किंतु अब राहुल गांधी पर गिरफ्तारी और संसद सदस्यता जाने की तलवार लटकते देख देश के सूबों के क्षत्रपों में पैदा हुआ डर एकता और महागठबंधन के संकेत देने लगा है।

- नवेद शिकोह/लखनऊ

(लेखक उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं, विचार उनके निजी हैं)

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