अमरमणि और गायत्री प्रजापति के बेवफा पत्रकार !
तजुर्बे सिखाते हैं। वो चाहे तरक्की के हों, बर्बादी के, सियासत के,अय्याशी या जेल के हों। रसूखदारों और सियासतदानों की अर्श से फर्श, और फर्श से अर्श की दिलचस्प कहानियों के तजुर्बों ने बता दिया है कि पत्रकारों से व्यक्तिगत याराना बस छतरी जितना काम आ सकता है। मामूली बारिश और धूप से बचा सकता है,पर ये मुसीबत की सुनामी नहीं रोक सकता। बल्कि कभी-कभी तो ऐसी छतरियों को देखकर तो सुनामी की रफ्तार बढ़ ही जाती है।
मीडिया भी सांइस की तरह है। वरदान भी अभिशाप भी। बड़ी हस्तियों के बड़े क़रीबी बनने की फितरत वाले चंद पत्रकारों से मौजूदा दौर के नौकरशाह और सत्ताधारी फासला बनाने लगे हैं। जो कभी रसूखदारों के साथ जाम-से जाम मिलाने से लेकर काम करवाकर माल कमा कर साइकिल से लक्जरी गाड़ियों पर आ गए थे वो मौजूदा दौर में किसी बड़े नेता या नौकरशाह के खास बनने की नाकाम कोशिश में मारे-मारे घूम रहे हैं। ये हुई वर्तमान की बात। अब आईए अतीत की बात की जाए।
अतीत क़िस्से ही नहीं सुनाता, सबक भी सिखाता है
सत्तानशीं अमरमणि त्रिपाठी के वो क्या दिन थे। दावतें,महफिलें, शबाब और शराब.... चंद पत्रकार उनके दरबार-ए-ख़ास में खास हुआ करते थे। हर महफ़िल के हर रंग में दीपक की तरह जगमगाते थे कुछ ख़ास पत्रकारों के चेहरे। कोई अमरमणि को सियासत की अमर गाथा बताता था तो कोई मुख्यमंत्री बन जाने के सपने दिखाता था। कोई उनसे फिल्म फाइनेंस करने की गुजारिश कर फिल्म का प्लाट सुझाता था तो कोई उस फिल्म की हिरोइन के लिए हुस्नजादियों का ज़िक्र करता था। राजा को जो पसंद था वही बातें होती थीं।
इसी तरह अखिलेश सरकार के ताकतवर कैबिनेट मंत्री गायत्री प्रजापति के भी कुछ ख़ास दरबारी पत्रकार थे। बताया जाता है कि अवैध खनन की कमाई का बड़ा हिस्सा इन पत्रकारों को वित्तपोषित करता था। पत्रकार नकारात्मक खबरों को रोकते थे। गायत्री के विरोधियों से वाकिफ कराते थे। सत्ता के दूसरे खेमे और नौकरशाहों की मुखबिरी करते थे। खनन पर या कोई भी निगेटिव खबर किसी के हाथ लग जाए तो उसे रोकने की सौदाबाजी करवाते थे।
पवित्र साहित्यिक मंच को नापाक और सत्यानाश करने वाले इवेंट वालों के कानों तक भी ये बात पंहुच गई और फिर एक ग्लैमरस कवि सम्मेलन अमरमणि त्रिपाठी की नियमित का काल बन गया। जब बुरा वक्त शुरू हुआ तो इसे धूल, गर्द, पानी की बौछार या कुछ वक्त की धूप समझकर अमरमणि के दरबारी पत्रकारों ने छतरी बनकर इसे रोकने की कोशिश भी की। ताकि ये मुसीबत टल जाने पर साहब इनाम दें।
लेकिन ये मधुमिता हत्या कांड अमरमणि की अमर मुसीबत था। काल था, नियति थी। सुनामी जैसी मुसीबत का ये सांड लाल छतरी वाले पत्रकारों को देख कर और भड़क रहा था। यानी ईमानदारी से पत्रकारिता करने वाले अमरमणि के ख़ास दरबारी पत्रकारों को देखकर मधुमिता हत्याकांड की रिपोर्टिंग में और भी धार पैदा कर रहे थे।
इसी तरह अखिलेश सरकार के ताकतवर कैबिनेट मंत्री गायत्री प्रजापति के भी कुछ ख़ास दरबारी पत्रकार थे। बताया जाता है कि अवैध खनन की कमाई का बड़ा हिस्सा इन पत्रकारों को वित्तपोषित करता था। पत्रकार नकारात्मक खबरों को रोकते थे। गायत्री के विरोधियों से वाकिफ कराते थे। सत्ता के दूसरे खेमे और नौकरशाहों की मुखबिरी करते थे। खनन पर या कोई भी निगेटिव खबर किसी के हाथ लग जाए तो उसे रोकने की सौदाबाजी करवाते थे।
लेकिन जब गायत्री प्रजापति बुरे फंस गए और वो मीडिया मैनेजमेंट के लिए अपने इन ख़ास पत्रकारों को फोन करवाते थे तो फोन स्विच आफ हो जाते थे। गायत्री की दौलत से ही खरीदे गए मंहगे एप्पल मोबाइल फोन गायत्री के ही बुरे वक्त पर बंद हो गए थे।
ऐसे ही जैसे अमरमणि के जेल जाते ही उनके मित्र पत्रकारों ने एक झटके में उनसे रिश्ता खत्म कर लिया था। बड़ी एजेंसियों ने जांच शुरू की थी अपने-अपने मोबाइलों से अपने सियासी आक़ा का नाम तक डीलीट कर दिया था।
दरबारी की यही फितरत है। वो दरबार को खंडहर होने से नहीं बचा सकता। खंडहर छोड़कर नए दरबार का दरबारी बनने के लिए मुंह मोड़ लेता है और पीठ दिखा देता है। मंटो ने कहा था कि तवायफ के कोठे पर तब तक गहमागहमी रहती है जब तक वो जवान हो।
- नवेद शिकोह
(लेखक उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैं, विचार निजी हैं)