कहाँ मुमकिन है दुनिया को बदलना...

कहाँ मुमकिन है दुनिया को बदलना...

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सफ़र में वो ही चलते जा रहे हैं

जो गिरकर भी सँभलते जा रहे हैं

कहाँ मुमकिन है दुनिया को बदलना

सो ख़ुद को ही बदलते जा रहे हैं

कभी रक्खे जो दिल पर बोझ भारी

रगों में सब पिघलते जा रहे हैं

वफ़ा की है नहीं उम्मीद कोई

मरासिम थे जो गलते जा रहे हैं

सियासत फिर हवा देती है क्या कुछ

मकाँ सब क्यूँ ये जलते जा रहे हैं

बड़ी उम्मीद से पाला था जिनको

वो अरमा भी निकलते जा रहे हैं

ये दुनिया कब कहाँ होती है किसकी

लो हम भी हाथ मलते जा रहे हैं

-समीर 'लखनवी'

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