सबसे उत्तम मौन की भाषा...
भाषा क्या होती है
भाषा वह माध्यम जिसके द्वारा एक दूसरे तक अपने विचारों अथवा भावनाओं को प्रेषित कर सकें। पृथ्वी पर भाषा आदि काल से है। लिखित न सही सांकेतिक ही सही मगर जड़ चेतन सभी आपस में संवाद करते हैं। जैसे जैसे मानव, सभ्यता के रूप में विकसित होता गया। संवाद के तौर तरीके भी विकसित होते गए। जिन्हें आधुनिक तौर पर भाषा कहते हैं।
पृथ्वी के विभिन्न हिस्सों में आज करीब 6900 भाषाएं अस्तित्व में हैं। इनमें से नब्बे फीसद भाषाओं पर अस्तित्व का संकट है। इन भाषाओं के बोलने वाले एक लाख से भी कम बचे हैं। जबकि दुनिया के साठ फीसद लोग हिंदी अंग्रेजी सहित करीब तीस भाषाओं में संवाद करते हैं। अपने देश में ही पिछले पचास वर्षों में 850 भाषाओं में से 250 भाषाएं विलुप्त हो चुकी हैं जबकि 130 भाषाएं विलुप्त होने के कगार पर हैं।
मातृभाषा क्यों? पितृभाषा क्यों नहीं?
मातृभाषा को लेकर आम जनमानस में एक मिथ्या अवधारणा है। दरअसल ये भ्रांति अंग्रेजी के मदर्स टंग से आई। मां की जुबान या मां बोली। ऐसा शायद इसलिए माना गया कि मां के गर्भ में जीवन के प्रवेश से लेकर बच्चे के पारिवारिक और सामाजिक जीवन में प्रवेश तक मां ही उससे ज्यादा संवाद करती है। जबकि सच यह है कि एक बच्चे के लिए संवाद की वह भाषा ही उसकी मूल भाषा है जिसे मातृभाषा कहा गया।
जिसमें बच्चा बगैर एक अक्षर पढ़े लिखे भी आसानी से संवाद करता है। और इसमें सिर्फ मां का प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि उसके परिजनों और समाज के लोगों का भी योगदान होता है। वैसे 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस बांग्लादेश की पहल पर यूनेस्को ने 2000 में घोषित किया। 21 फरवरी 1952 को बांग्लादेश में मातृभाषा के लिए हुए आंदोलन में कई लोगों की शहादत के बाद ही वहां देश की आजादी का संघर्ष शुरू हुआ था।
मातृभाषा नहीं, लोक भाषा कहें
मेरे विचार से मातृभाषा को लोक भाषा कहना सर्वथा उचित होगा। जिस परिवार में बच्चा पैदा होता है। जिस समाज में पलता बढ़ता है। उस स्थान की आम बोलचाल की भाषा ही लोक भाषा है। इसे सीखने के लिए बच्चे को कोई प्रयास नहीं करना पड़ता है। वह सुनते हुए ही सीखने लगता है। इसके उसे शब्दाक्षर अथवा व्याकरण सीखने की जरूरत नहीं पड़ती। इसमें सिर्फ मां का ही नहीं बल्कि पिता, परिजनों और समाज का भी योगदान होता है। भले ही उस भाषा को वहां की सरकार की ओर से मान्यता न मिली हो। जैसे लोक संस्कृति वैसे लोक भाषा।
सबसे उत्तम मौन की भाषा
मौन सबसे सशक्त माध्यम है संवाद का। जिनकी कोई जुबां नहीं तो क्या वे संवाद नहीं करते? करते हैं। बस हम समझ नहीं पाते। जैसे गूंगे बहरों की भाषा। जो इशारे पर चलती है। लेकिन जब मुंह न खुले, जुबां भी न हिले, इशारा भी न हो और संवाद भी हो जाय। यही है मौन की भाषा। मौन की भाषा ईश्वरीय है। हम अपने दैनिक व्यस्त जीवन में से पांच दस मिनट अपने लिए निकालें। कहीं कोई स्थान तलाशें और बैठ जाएं चुपचाप। इस तरह चुप बैठने पर विचार चलने लगते हैं। इन विचारों का भी बहुत शोर होता है।
लेकिन आपको विश्वास दिलाता हूं कि जब आप नियमित इसे अभ्यास में ले आएंगे तब वो पल आएगा जब विचार भी थमने लगेंगे और वो घटित होगा जिसे मौन कहते हैं। नि: शब्द, निर्विचार। सिर्फ मौन। इसी मौन में बाबा से संवाद होगा। यक़ीन मानिए जिस दिन, जिस क्षण ये आपके जीवन में घट गया, मतलब आपने इसका स्वाद चख लिया तो समझ लीजिए कभी इससे निकलना नहीं चाहेंगे।
नींद बहुत आती है। कुर्सी पर बैठे बैठे सो गया। शोर शराबे में भी खो गया। कुछ जो आपको बहुत करीब से जानने का दावा करते होंगे वो कहेंगे कि लगता है भंगिया गया है कौनो नशा करके आया है। और आप उनको समझा नहीं पाएंगे। आपके पास शब्द नहीं होंगे उसे बताने के लिए। ठीक गूंगे के गुड़ की तरह।
#बाबाकीजयहो #नवयोग एक नये युग का आरंभ
-- राजीव तिवारी 'बाबा'