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जगजीत सिंह की दसवीं पुण्यतिथि आज, लखनऊ के एक शायर की एक नज़्म उनके नाम
सुबह की धूप कहूँ
या उसे इश्क़ मुकम्मल जैसा
रूह में रहता है सदा
वो मेरी ख़ुशबू जैसा !
उसकी आवाज़
कोई दस्त-ए-मसीहाई है
बिन्ते माहताब
ज्यूँ गरदूं से उतर आई है
दर्द हो जाता है
ख़ुद अपना बयां जैसे
हर्फ़ दर हर्फ़
वो करता है अयां ऐसे
मुझको लगता है कि
जब तलक दहर में ये दर्द-ओ-ग़म बाहम हैं
तब तलक रूह में जगजीत भी क़ायम हैं !
-समीर 'लखनवी'
(दस्त-ए-मसीहाई- Hand that cures like Messiah; बिन्ते माहताब- Daughter of moon; गरदूं- the heaven; हर्फ़-Word , अयां- Clear, evident; दहर- World, period, era, time, बाहम- together )